गुरू क्या करते हैं, इस बात पर शिष्य को ध्यान नहीं होना चाहिये। श्रेष्ठ शिष्य वही है जो कि गुरू कहते हैं, वह करे। जो कुछ करते हैं, गुरू करते हैं, यह सब क्रिया कलाप उन्हीं की माया का हिस्सा है, मैं तो मात्र उनका दास, एक निमित्त मात्र हूं, जो यह भाव अपने मन में रख लेता है वह शिष्यता के उच्चतम सोपानों को प्राप्त कर लेता है।
गुरू से बढ़कर न शास्त्र है न तपस्या, गुरू से बढ़कर न देवी व देव और न ही मंत्र जप या मोक्ष। एक मात्र गुरूदेव ही सर्वश्रेष्ठ हैं।
जो इस वाक्य को अपने मन में बिठा लेता है, तो वह अपने आप ही शिष्य शिरोमणि बन कर गुरूदेव का अत्यंत प्रिय हो जाता है। गुरू जो भी आज्ञा देते हैं, उसके पीछे कोई रहस्य अवश्य होता है। अतः शिष्य को बिना किसी संशय के गुरू की आज्ञा का पूर्ण तत्परता से, अविलम्ब पालन करना चाहिये, क्योंकि शिष्य इस जीवन में क्यों आया है, इस युग में क्यों जन्मा है, वह इस पृथ्वी पर क्या कर सकता है, इस सबका ज्ञान केवल गुरू ही करा सकता है।
शिष्य को न तो गुरू-निंदा करनी चाहिये और न ही निंदा सुननी चाहिये। यदि कोई गुरू की निंदा करता है तो शिष्य को चाहिये कि या तो अपने वाग्बल अथवा सामर्थ्य से उसको परास्त कर दे, अथवा यदि वह ऐसा न कर सके, तो उसे ऐसे लोगों की संगति त्याग देनी चाहिये। गुरू-निंदा सुन लेना भी उतना ही दोषपूर्ण है, जितना कि गुरू निंदा करना।
गुरू की कृपा से आत्मा में प्रकाश संभव है। यही वेदों में भी कहा है, यही समस्त उपनिषदों का सार निचोड़ है। शिष्य वह है, जो गुरू के बताये मार्ग पर चलकर उनसे दीक्षा लाभ लेकर अपने जीवन में चारों पुरूषार्थ- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को प्राप्त करता है।
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